रक्तदंतिका मंदिर का वर्णन,दुर्गासप्तशती में वर्णित रक्तदंतिका मंदिर, राजा सूरथ और समाधि वैश्य रक्तदंतिका देवी की कथा के अनुसार एक बार वैप्रचिती.....
रक्तदंतिका देवी की कथा के अनुसार एक बार वैप्रचिती नाम के एक असुर के आतंक से न केवल इन्सान बल्कि देवता भी अत्यन्त व्याकुल थें। तब देवताओं और पृथ्वी की प्रार्थना पर मॉ दुर्गा ने रक्तदंतिका नाम से अवतार लेकर वैप्रचिती आदि असुरों के आतंक से पृथ्वी को भय मुक्त कर दिया। इस देवी अवतार द्वारा असुरों को मारकर उनके रक्तपान करने के कारण ‘रक्तदंतिका’ नाम से विख्यात हुई।
श्री दुर्गा सप्तशती के अंत मे मुर्ति रहस्य के अंतर्गत माँ के स्वरूप का विस्तृत वर्णन मिलता है, जिसमें माँ का स्वरूप रक्तवर्णी और चतुर्भुजी है। दुर्गा सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय के अनुसार, वैवस्वत मन्वंतर के 28वें युग में शुम्भ और निशुम्भ नामक दो अन्य महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नंद के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेकर दोनों असुरों का नाश करूँगी। तत्पश्चात् पृथ्वी पर अवतार लेकर मैं वैप्रचिति नामक दैत्य के दो असुर पुत्रों का वध करूँगी। उन महादैत्यों का भक्षण कर लाल दन्त (दांत) होने के कारण तब स्वर्ग में देवता और धरती पर मनुष्य सदा मुझे 'रक्तदंतिका' कह मेरी स्तुति करेंगे।
रियासतकालीन रक्तदन्तिका माता मन्दिर की, जिससे जुड़ी कथाओं का उल्लेख मार्कण्डेयपुराण से निर्मित दुर्गासप्तशती में वर्णित है। बून्दी जिला मुख्यालय से 10 किमी दूर राष्ट्रीय राजमार्ग 52 पर ग्राम सथूर में चन्द्रभागा नदी के किनारे स्थित यह ऐतिहासिक रक्तदन्तिका माता शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है। दुर्गासप्तशती के अनुसार राजा सूरथ ने यहाँ सूरथपुरी नगरी बसाई, जो कालान्तर में अपभ्रंश रुप सथूर हो गया। यह सथूर ग्राम तीन बार आबाद हुआ और उजड़ा, अंतिम बार यह सथूर गांव संवत 1241 में बसा। जिसके प्रमाण यहाँ पर खुदाई पर प्राप्त पुराने परकोटे की भरी हुई नीवँ से होते हैं, यहाँ महाभारत कालीन अनेक प्राचीन ऐतिहासिक स्मारक प्राप्त हुए हैं। अभी भी यहाँ कई पुराने मकान, हवेलियों के भग्नावशेष मौजुद हैं।
ग्राम सथूर में मजबूत परकोटे से घिरे हुए विशाल मन्दिर में रक्तदन्तिका माता की पूर्वाभिमुख बालूका प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा के दोनों ओर सिंहमुख के सादृश्य सिंहासन पर कमल पुष्प पर माता पद्मासन पर चतुर्भुज रुप में विराजित है। माता के शीर्ष दो हाथों में त्रिशुल और घण्टारुपी आयुध है, तो नीचे के एक हाथ में माला और दुसरा आशीर्वाद स्वरुप दर्शित है। चाँदी से निर्मित छतरी में यज्ञोपवित धारण किए हुए माता की प्रतिमा भव्य एवं अद्वितीय हैं। हालांकि मंदिर स्थापना से सम्बन्धित कोई शिलालेख उपलब्ध नहीं है, लेकिन 446 वर्ष पूर्व इसका अस्तित्व रहा है। बून्दी नरेश राव सुर्जन के पुत्र दूदा का इसी माता मन्दिर मे पूजा अर्चना करते समय अकबर के सेनापति रणमस्त खाँ के साथ संघर्ष हुआ था। यहाँ पूर्व में बकरे की बलि दी जाती थी, जिसे महारावराजा रामसिंह के राज्यादेश से 1865 ई. में बन्द कर दिया गया। जिस चाँदी की छतरी का उल्लेख है, वह महारावराजा रामसिंह की महारानी चन्द्रभान कुँवरी द्वारा सं. 1920 में आश्विन शुक्ल अष्ठमी को भेंट किया गया। मंदिर के सटे हुए दुर्गाविलास बाग में देवी भक्त महारानी चन्द्रभान कुँवरी का स्मारक है, जिनका स्वर्गवास यहीं पर सं.1942 मे हुआ था।
दुर्गासप्तशती के अनुसार चैत्रवंश में उत्पन्न राजा सूरथ कोला विध्वंसी क्षत्रियों से युद्घ में हारने और मंत्रीगणों के विश्वासघात से दुखी राजा सूरथ मेघामुनि के आश्रम में आए, तभी पत्नि और पुत्रों से प्रताडित समाधि नामक एक वैश्य भी आश्रम मे आया। मेघामुनि का आश्रम कालान्तर में मार्कण्डेय आश्रम कहा जाता है, जो सथूर ग्राम से 8 किमी दूर घने जंगल में चन्द्रभागा नदी के उद्गमस्थल पर स्थित हैं। यहाँ आज भी मार्कण्डेय मुनि प्रतिमा और आश्रम के अवशेष स्थित है। मेघामुनि के पूछे जाने पर समाधि वैश्य ने राजा के राज्य नष्ट होने का कारण बताते हुए पुनः राज्य प्राप्ति का उपाय बताने का निवेदन किया। पूरी बात सुनकर मेघामुनि ने कार्यसिद्धि के लिए पूर्व दिशा की ओर जाते हुए चंद्रभागा के तट पर बाँस से घिरे क्षेत्र में जगदंबा की आराधना करने का उपाय बताया। मुनि के कथन के अनुसार राजा सूरथ और समाधि वैश्य ने चन्द्रभागा के तट पर बालुका प्रतिमा बना कर तप किया और अपने रक्त से प्रोषित बलि देते हुए संयमपूर्वक माता की आराधना करते रहे, प्रसन्न होकर माँ चण्डिका ने स्वयं प्रकट हो दर्शन देकर राजा को पुनः राज्य प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। चन्द्रभागा के किनारे घने बाँसों से घिरे इस क्षेत्र मे राजा सूरथ द्वारा स्थापित यह बालूका प्रतिमा रक्तदन्तिका के रुप में विराजित है।
रक्तदन्तिका मन्दिर को कंजर जाति के लोग बहुत मानते हैं, यहाँ आयोजित वार्षिक मेले में कंजर जाति के लोग बहुतायत मे सम्मिलित होते हैं। यों तो वर्षपर्यन्त श्रद्धालुओं का यहाँ आना जाना लगा रहता है, लेकिन चैत्र और आश्विन नवरात्र में दर्शन का विशेष महत्व हैं। इस मन्दिर मे स्थानीय ही नहीं अपितु देश के कई भागों सहित विदेश से भी दर्शन करने के लिए श्रद्धालु आते हैं।