सावन सोमवार व्रत की कथा, सावन माह की एकादशी व्रत कथा उस व्यपारी की प्रेमी भक्ति देख माता पार्वती जी ने एक दिन भगवान भोलेनाथ से कहा...
महादेव के प्रिय माह सावन में सोमवार का महत्व अत्यधिक है। सोमवार को भगवान महादेव का प्रिय वार कहा जाता है। कथा के अनुसार अमरपुर नगर में एक धनी एवँ उदार व्यापारी रहता था। बहुत जगहों पर उसका व्यपार फैला हुआ था। सभी व्यक्ति उस व्यापारी का सम्मान करते थे। वह एक यशवान , धनवान व्यापारी था। परंतु इतना सब कुछ होने के बावजूद भी वह पूर्णरूप से प्रसन्न नही था, क्योंकि उसके कोई पुत्र नही था। दिन-रात उसे एक ही चिंता सताती रहती थी, की उसके बाद कौन उसके इतने बड़े व्यापार एवँ धन संपत्ति को संभालेगा। पुत्र पाने की इच्छा से वह नित्य प्रति सोमवार भगवान भोलेनाथ की पूजा पूरे विधि- विधान के साथ करता था। भोलेनाथ की पूजा व व्रत करने के बाद वह नित्य उनकी आरती करता था एवँ नित्य शाम को घी का दीपक जलाकर भगवान महादेव को भोग लगाता था।
उस व्यपारी की प्रेमी भक्ति देख माता पार्वती जी ने एक दिन भगवान भोलेनाथ से कहा- हे देवो के देव महादेव, मेरे प्राणनाथ, यह व्यापारी आपका परम् भक्त है एवँ कितने दिनों से यह सोमवार का व्रत व पूजा पूरे विधि विधान से पूर्ण भक्तिभाव से कर रहा है। आप जल्द ही इस भक्त की मनोकामना को पूर्ण करें। तभी भगवान महादेव मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले कि हे प्रिय पार्वती जी ! इस संसार मे सभी अपने अपने कर्म के अनुसार फल को भोगते है। जैसा वह कर्म करेंगे वैसा ही उन्हें फल मिलेगा।परन्तु माता पार्वती जी फिर भी नही मानी और उन्होंने महादेव से आग्रह किया कि हे मेरे प्राणनाथ आपको इस व्यापारी की इच्छा पूरी करनी ही पड़ेगी | माता पार्वती जी का इतना आग्रह देखकर भगवान महादेव ने कहा कि - आपके आग्रह पर मैं इस व्यापारी को पुत्र - प्राप्ति का वरदान देता हूं। लेकिन इसका पुत्र 16 वर्ष से अधिक जीवित नही रहेगा।
ठीक उसी रात भगवान महादेव उस व्यापारी के सपने में आये एवँ उसे पुत्र का वर्डना देते हुए उसके 16 वर्ष तक ही जीवित रहने की बात बताकर अंतर्ध्यान हो गए। भगवान के वरदान से व्यापारी को बहुत खुशी हुई ,लेकिन पुत्र की अल्पायु का सुनकर उसकी खुशी कम हो गयी। व्यापारी पहले की भांति सोमवार को महादेव का विधिवत पूजन एवँ व्रत करता रहा। कुछ महीने पश्चात व्यापारी के घर मे एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ। पुत्र जन्म से व्यापारी के घर मे खुशियां भर गई बहुत धूमधाम से व्यापारी ने पुत्र के जन्म का समारोह मनाया।
व्यपारी के अलावा कोई भी व्यक्ति उसके अल्पायु के बारे में नही जानता था। व्यापारी ने विद्वान ब्राह्मणों से उसके पुत्र का नामकरण का आग्रह किया तो विद्वान ब्राह्मणों ने उसका नाम अमर रखा। अमर जब 12 वर्ष का हुआ तो उसे शिक्षा के लिए वाराणसी भेजने का निश्चय हुआ। व्यापारी ने यह जिम्मा अमर के मामा जी दीप चंद को सौपा। अमर अपने मामा के साथ वाराणसी के लिए रवाना हो गया। रास्ते मे अमर व उसके मामा दीपचंद कही पर भी विश्राम करते तो वह वहां पर यज्ञ करते एवँ ब्राह्मण को भोजन कराते थे।
कुछ दिनों की यात्रा के बाद अमर और उसके मामा दीपचंद एक जगह नगर में पहुंचे। उस नगर को राजा की बेटी के शादी की खुशी में नगर की साज सज्जा की गई थी। निश्चित समय पर बारात आ गई लेकिन दूल्हे के पिता अपने पुत्र के एक आंख से काने होने के कारण बहुत परेशान था। उसे इस बात का डर सता रहा था कि राजा को इस बात का पता चलने पर कहीं वह विवाह से मना न कर दें। इससे उसकी इज्जत की धज्जियां उड़ा जाएगी ओर उसकी बदनामी भी होगी।
वर के पिता ने जबअमर को देखा तो उसके मन में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न में अमर को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद अमर को धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने साथ अपने नगर में ले जाऊंगा। दूल्हे के पिता ने इसी संबंध में अमर और उसके मामा दीपचंद से बात की। मामा दीपचंद ने धन मिलने के लालच में दूल्हे के पिता की बात स्वीकार कर ली। अमर को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी चंद्रिका से विवाह करा दिया गया। राजा ने बहुत-सा धन देकर उनकी सुंदर बेटी को विदा किया।
अमर जब लौट रहा था तो सच नहीं छिपा सका और उसने राजकुमारी की ओढ़नी पर लिख दिया- 'राजकुमारी चंद्रिका, तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ था, मैं तो वाराणसी में शिक्षा प्राप्त करने जा रहा हूं। अब तुम्हें जिस व्यक्ति की पत्नी बनना पड़ेगा, वह काना है।' ओर यह सब उसके पिता ने किया है। जब राजकुमारी ने अपनी ओढ़नी पर लिखा हुआ पढ़ा तो उसने काने लड़के के साथ जाने से इनकार कर दिया। राजा ने सब बातें जानकर राजकुमारी को महल में रख लिया। उधर अमर अपने मामा दीपचंद के साथ वाराणसी पहुंच गया। अमर ने गुरुकुल में पढ़ना शुरू कर दिया।
जब अमर की आयु 16 वर्ष पूर्ण हुई तो उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराया गया और खूब अन्न, वस्त्र दान दिए गए। रात को अमर अपने शयनकक्ष में सो रहे थे। शिव के वरदान के अनुसार शयनावस्था में ही अमर के प्राण-पखेरू उड़ गए। सूर्योदय पर मामा अमर को मृत देखकर रोने लगा। आसपास के लोग भी इक्कट्ठे होकर दुःख प्रकट करने लगे एवँ मामा को ढांढस बंधाने लगे।
मामा दीपचंद के रोने, विलाप करने के स्वर समीप से गुजरते हुए भगवान शिव और माता पार्वती ने भी सुने। पार्वतीजी ने भगवान महादेव से कहा- हे 'प्राणनाथ! मुझसे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहे। आप इस व्यक्ति के कष्ट व दुःखों अवश्य दूर करें। भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ अदृश्य रूप में समीप जाकर अमर को देखा तो पार्वतीजी से बोले- हे प्रिय'पार्वती! यह तो उसी व्यापारी का पुत्र है। मैंने इसे 16 वर्ष की आयु का वरदान दिया था। इसकी आयु तो पूर्ण हो गई।
पार्वतीजी ने फिर भगवान शिव से निवेदन किया- 'हे प्राणनाथ! आप इस लड़के को जीवित करें। नहीं तो इसके माता-पिता पुत्र की मृत्यु के कारण रो-रोकर अपने प्राणों का त्याग कर देंगे। इस लड़के का पिता तो आपका परम भक्त है। वर्षों से सोमवार का व्रत करते हुए आपको भोग लगा रहा है।' पार्वती के आग्रह करने पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया और कुछ ही पल में वह जीवित होकर उठ बैठा।
शिक्षा समाप्त करके अमर मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां अमर का विवाह हुआ था। उस नगर में भी अमर ने यज्ञ का आयोजन किया। समीप से गुजरते हुए नगर के राजा ने यज्ञ का आयोजन देखा। राजा ने अमर को तुरंत पहचान लिया। यज्ञ समाप्त होने पर राजा अमर और उसके मामा दीपचंद को लेकर महल में गया और कुछ दिन उसे महल में रखकर बहुत-सा धन, वस्त्र देकर राजकुमारी चंद्रिका के साथ विदा किया।
रास्ते में सुरक्षा के लिए राजा ने बहुत से सैनिकों को भी उनके साथ भेजा। मामा दीपचंद ने नगर में पहुंचते ही एक दूत को घर भेजकर अपने आगमन की सूचना भेजी। अपने बेटे अमर के जीवित वापस लौटने की सूचना से व्यापारी अत्यधिक प्रसन्न हुआ। व्यापारी ने अपनी पत्नी के साथ स्वयं को एक कमरे में बंद कर रखा था। भूखे-प्यासे रहकर व्यापारी और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि यदि उन्हें अपने बेटे अमर की मृत्यु का समाचार मिला तो दोनों स्वयं अपने प्राण त्याग देंगे।
व्यापारी अपनी पत्नी और मित्रों के साथ नगर के द्वार पर पहुंचा। अपने बेटे के विवाह का समाचार सुनकर, पुत्रवधू राजकुमारी चंद्रिका को देखकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- 'हे श्रेष्ठी! मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लंबी एवँ सुंदर आयु प्रदान की है।' व्यापारी अत्यधिक प्रसन्न हुआ। सोमवार का व्रत करने से व्यापारी के घर में खुशियां पुनः लौट आईं। शास्त्रों में लिखा है कि जो स्त्री-पुरुष सोमवार का विधिवत व्रत व पूजन करते है और व्रतकथा सुनते हैं उनकी सभी इच्छाएं शत प्रतिशत पूर्ण होती हैं।