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Jai Bhole

maharshi shringi rishi story

महर्षि श्रंग ऋषि परम पिता ब्रहमा के मानस पुत्र महर्षि कश्यप थे उनके पुत्र महर्षि विभाण्डक थे वे उच्च कोटि के सिद्ध सन्त थे।

maharshi shringi rishi story

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महर्षि श्रंग ऋषि

परम पिता ब्रहमा के मानस पुत्र महर्षि कश्यप थे। उनके पुत्र महर्षि विभाण्डक थे। वे उच्च कोटि के सिद्ध सन्त थे। पूरे आर्यावर्त में उनको बड़े श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। उनके तप से देवतागण भयभीत हो गये थे। इन्द्र को अपना सिंहासन डगमगाता हुआ दिखाई दिया था।

महर्षि की तपस्या भंग करने के लिए उन्होंने अपने प्रिय अप्सरा उर्वशी को भेजा था। जिसके प्रेमपाश में पड़कर महर्षि का तप खंडित हुआ और दोनों के संयोग से बालक श्रृंगी का जन्म हुआ। पुराण में श्रृंगी को इन दोनों का संतान कहा गया है। बालक के मस्तक पर एक सींग था। अतः उनका नाम श्रृंगी पड़ा । बालक को जन्म देने के बाद उर्वशी का काम पूरा हो गया और वह स्वर्गलोक वापस लौट गई। इस धोखे से विभाण्डक इतने आहत हुए कि उन्हें नारी जाति से ही घृणा हो गई। वे क्रोधित रहने लगे तथा लोग उनके शाप से बहुत डरने लगे थे। उन्होंने अपने पुत्र को मां, बाप तथा गुरू तीनों का प्यार दिया और तीनों की कमी पूरी की। उस आश्रम में किसी भी नारी का प्रवेश वर्जित था। वे अपने पूरे मनोयोग से बालक का पालन पोषण किये थे। बालक अपने पिता के अलावा अन्य किसी को जानता तक नहीं था। सांसारिक वृत्तियों से मुक्त यह आश्रम साक्षात् स्वर्ग सा लगता था। शक्ति और रूप अपनी अप्रत्याशित मण्डनहीन ताजगी में बालक श्रृंगी को अभिसिंचित कर रहे थे। यह आश्रम मनोरमा जिसे सरस्वती भी कहा जाता था, के तट पर स्थित था।

एक अन्य जनश्रुति कथा के अनुसार एक बार महर्षि विभाण्डक इन्द्र के प्रिय अप्सरा उर्वशी को देखते ही उस पर मोहित हो गये तथा नदी में स्नान करते समय उनका वीर्यपात हुआ। एक शापित देवकन्या मृगी के रूप में वहां विचरण कर रही थी। उसने जल के साथ वीर्य को ग्रहण कर लिया । इससे एक बालक का जन्म हुआ उसके सिर पर सींग उगे हुए थे। उस विचित्र बालक को जन्म देकर वह मृगी शापमुक्त होकर स्वर्ग लोक चली गई। उस आश्रम में कोई तामसी वृत्ति नहीं पायी जाती थी। महर्षि विभाण्डक तथा नव ज्वजल्यमान बालक श्रृंगी का आश्रम अंग देश से लगा हुआ था। देवताओं के छल से आहत महर्षि विभाण्डक तप और क्रोध करने लगे थे।जिसके कारण उन दिनों वहां भयंकर सूखा पड़ा था। अंग के राजा रोमपाद ( चित्ररथ ) ने अपने मंत्रियों व पुरोहितों से मंत्रणा किया। ऋषि श्रृंगी अपने पिता विभाण्डक से भी अधिक तेजवान एवं प्रतिभावान बन गये। उसकी ख्याति दिग-दिगन्तर तक फैल गई थी।

अंगराज को सलाह दिया गया कि महर्षि श्रृंगी को अंग देश में लाने पर ही अंग देश का अकाल खत्म होगा। एक बार महर्षि विभाण्डक कहीं बाहर गये थे । अवसर की तलाश में अंगराज थे। उन्होंने श्रृंगी ऋषि को रिझाने के लिए देवदासियों तथा सुन्दिरियों का सहारा लिया और उन्हें वहां भेज दिया। उनके लिए गुप्त रूप में आश्रम के पास एक शिविर भी लगवा दिया था। त्वरित गति से उस आश्रम में सुन्दरियों ने तरह-तरह के हाव-भाव से श्रृंगी को रिझाने लगी। उन्हें तरह-तरह के खान-पान तथा पकवान उपलब्ध कराये गये। श्रृंगी इन सुन्दरियों के गिरफ्त में आ चुके थे। महर्षि विभाण्डक के आने के पहले वे सुन्दरियां वहा से पलायन कर चुकी थीं। श्रृंगी अब चंचल मन वाले हो गये थे। पिता के कहीं वाहर जाते ही वह छिपकर उन सुन्दिरियों के शिविर में स्वयं पहुच जाते थे। सुन्दरियों ने श्रृंगी को अपने साथ अंग देश ले लाने मे सफल हुई। वहां उनका बड़े हर्श औेर उल्लास से स्वागत किया गया। श्रृंगी ऋषि के पहुचते ही अंग देश में वर्षा होने लगी। सभी लोग अति आनन्दित हुए।

अपने आश्रम में श्रृंगी को ना पाकर महर्षि विभाण्डक को आश्चर्य हुआ। उन्होने अपने योग के बल से सब जानकारी प्राप्त कर लिया। अपने पुत्र को वापस लाने तथा अंग देश के राजा को दण्ड देने के लिए महर्षि विभाण्डक अपने आश्रम से अंग देश के लिए निकल पड़े । अंगदेश के राजा रोमपाद तथा दशरथ दोनों मित्र थे। महर्षि विभाण्डक के शाप से बचने के लिए रोमपाद ने राजा दशरथ की कन्या शान्ता को अपनी पोश्या पुत्री का दर्जा प्रदान करते हुए जल्दी से श्रृंगी ऋषि से उसकी शादी कर दिये। महर्षि विभाण्डक को देखकर एक योजना के तहत अंगदेश के वासियों ने जोर-जोर से शोर मचाना शुरू किया कि ’इस देश के राजा महर्षि श्रृंगी है।’ पुत्र को पुत्रवधू के साथ देखने पर महर्षि विभाण्डक का क्रोध दूर हो गया और उन्होंने अपना विचार बदलते हुए बर वधू के साथ राजा रोमपाद को भी आशीर्वाद दिया।

पुत्र व पुत्रवधू को साथ लेकर महर्षि विभाण्डक अपने आश्रम लौट आये और शान्ति पूर्वक रहने लगे। अयोध्या के राजा दशरथ के कोई सन्तान नहीं हो रही थी। उन्होने अपनी चिन्ता महर्षि वशिष्ठ से कह सुनाई। महर्षि वशिष्ठ ने श्रृंगी ऋषि के द्वारा अश्वमेध तथा पुत्रेष्ठीकामना यज्ञ करवाने का सुझाव दिया। दशरथ नंगे पैर उस आश्रम में गयें थे। तरह-तरह से उन्होंने महर्षि श्रृंगी की बन्दना की। ऋषि को उन पर तरस आ गया। महर्षि वशिष्ठ की सलाह को मानते हुए वह यज्ञ का पुरोहिताई करने को तैयार हो गये। उन्होने एक यज्ञ कुण्ड का निर्माण कराया । इस स्थान को मखौड़ा कहा जाता है। रूद्रायामक अयोध्याकाण्ड 28 में मख स्थान की महिमा इस प्रकार कहा गया है

कुटिला संगमाद्देवि ईशान्ये क्षेत्रमुत्तमम्।
मखःस्थानं महत्पूर्णा यम पुण्यामनोरमा।।

स्कन्द पुराण के मनोरमा महात्य में मखक्षेत्र को इस प्रकार महिमा मण्डित किया गया है-
मखःस्थलमितिख्यातं तीर्थाणामुत्तमोत्तमम्।
हरिष्चन्ग्रादयो यत्र यज्ञै विविध दक्षिणे।।


महाभारत के बनपर्व में यह आश्रम चम्पा नदी के किनारे बताया है। उत्तर प्रदेश के पूवोत्तर क्षेत्र के पर्यटन विभाग के बेवसाइट पर इस आश्रम को फ़ैजाबाद जिले में होना बताया है। परन्तु अयोध्या से इस स्थान की निकटता तथा परम्परागत रूप से 84 कोस की परिक्रमा मार्ग इसे सम्मलित होने कारण इसकी सत्यता स्वमेव प्रमाणित हो जाती है।

ऋषि श्रृंगी के यज्ञ के परिणाम स्वरूप राजा दशरथ को राम ,लक्ष्मण , भरत तथा शत्रुघ्न नामक चार सन्तानें हुई थी। जिस स्थान पर उन्होंने यह यज्ञ करवाये थे वहां एक प्राचीन मंदिर बना हुआ है। यहां श्रृंगी ऋषि व माता शान्ता का मंदिर बना हुआ है। इनकी समाधियां भी यहीं बनी हुई है। यह स्थान अयोध्या से पूरब में स्थित है। आषाढ़ माह के अन्तिम मंगलवार को बुढ़वा मंगल का मेला लगता है। माताजी को पूड़ी व हलवा का भोग लगाया जाता है। इसी दिन त्रेतायुग में यज्ञ का समापन हुआ था। यहां पर शान्ता माता ने 45 दिनों तक अराधना किया था। यज्ञ के बाद ऋषि श्रृंगी अपनी पत्नी शान्ता को अपने साथ लिवा जाना चाहते थे जो वहां नहीं गई और वर्तमान मंदिर में पिण्डी बनकर समां गयी । पुरातत्वविदों के सर्वेक्षणों में इस स्थान के ऊपरी सतह पर लाल मृदभाण्डों, भवन संरचना के अवशेष तथा ईंटों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं।

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